Saturday, October 8, 2011

Hindi Short Story Azan By M.Mubin

कहानी अज़ान लेखक एम. मुबीन
शायद वह रात का आन्तिम पहर था । नियम के आनुसार आंख खुल गई थी । उसने आनुमन लगाया उस समय शायद चार बज रहे ड़ोंगे । आज आंख नियम से कुछ पहले ही खुल गई थी ।
अब आंख बंद कर के लेटे रहने से भी कुछ मिलने वाल नहीं था । नींद तो आने से रही, सवेरे तक करवटं बदलते रहने से अच्‍छा है बाहर आंगन में बैफ़्कर सवेरे की ठंडी ठंडी हवा के झोकों का आनंद लिया जाए ।
यह सोचकर उसने बिस्तर छोड दिया । चारों ओर आंधकार छाया हुआ था । घर के बाहर आंगण में बंधे पशुओं ने आंधकार में भी उसकी आहट सुनली या उन्‍हों उसकी पारिचित गंध से उसकी उपास्थिती का आनुमन लगा लिया था। वे भी अपनी अपनी भाषा में आवाजे लगाकर उसे अपनी उपास्थिती का आभास दिलने लगे ।
‘अच्‍छा बाबा मुझे पता है तुम लेग जाग रहे हो.. आता हूं’ कहता वह पशुओं के समीप आया ! उसे देखकर गाय ने मुंह से कुछ स्वर निकाल ।
‘‘अब चुप भी हो जा,’’ उसने गाय का सिर थपथपाया तो गाय अपनी जीभा बाहर निकालकर उसका हाथ चाटने लगी उसके बाद भैंसे, भेड, बकारियां शोर लगाने लगी ।
वह एक एक को आवाज देकर उसे चुप रहने के लिए कहता और प्यार से उन्‍हे डांटता ।
थोडी देर बाद सब चुप हो गए तो वह आंगन में रखी खाटपर आकर बैठा गया और तंबाूक निकालकर चिलम भरने लगा ।
चिलम का एक कश लेकर उसने दूर गांव पर एक नजर डाली । अंधेरे मे डूबा गांव उसे किसी भाुतिहा हवेली सा प्रतीत हो रहा था । समय धीरे धीरे सरक रहा था । क़ितीज पर हलकी हलकी ललीम दिखाई देने लगी थी । परंतु वातावरण पर वही सन्नाटा छाया हुआ था । उसके कान इस सन्नाटे को तोडने वाली एक आवाज की प्रतीश कर रहे थे ।
इस मौन के सीने को सबसे पहले चीरने वाली एक आवाज अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज ! परंतु क़ितीज पर पौ पकट गई राम, हनुमन, शंकर, विय्र्णू सभी मंदिरों की घंटियां बजने लगीं । एक साथ बजने वाले उन घंटो ने वातावरण में एक शोर उत्पन्न करके मौन के सीने को चीर कर रख दिया ।
और फिर सब शांत हो गए ।
परंतु ना तो अल्‍लाबख्‍श की आवाज ना वातावरण में उभारी ना उसे अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज सुनाई दी । एक लमबी सांस लेकर उसने अपना सिर झटक दिया ।
वह भी सचमुच बहा मुर्ख है ।
वह यह अच्‍छी तरह जानता है कि अल्‍लाबख्‍श अपने बचे हुए परिवार को लेकर कब का इस गांव को छोहकर जा चुका है ।
जिस मस्जिद के आंगन से वह आज़ान देता था वह खण्डहर बन
गई है । उसके भीतर अब हनुमान की मूर्ति रखी हुई है । फिर भाल उसे अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज किस तरह सुनाई देगी । अब तो अल्‍लाबख्‍श को गांव छोडे महीनों हो गए है । फिर भी उसके कान अल्‍लाबख्‍श की आज़ान सुनने की प्रतीश क़्यों करते है ?
शायद इसलिए कि वे चालीस वर्षो से निरंतर अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज सुनते आए थे । दिन के कोलहल में तो उसे अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज सुनाई नहीं देती थी । परंतु प्रात और शाम की आज़ान हर कोई सापक सुन सकता था । अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज सुनकर उसके मन को बडी शान्ति मिलती थी ।
यह सोचकर कि मेरी तरह मेरा मित्र भी जाग गया है, और अपने परमेश्वर की आराधना में लगा है उस खुदा की आराधना के लिए खुदा के दूसरे बंदों को बुल रहा है ।
चालीस वर्षो में ऐ से बहुत कम आवसर आए थे जब उसने अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज नही सुनी हो ।
उन आवसरों में आधिकतर वे दिन थे जब वह किसी काम से गांव से बाहर गया हो या फिर अल्‍लाबख्‍श किसी काम से घर के बाहर गया हो ।
चालीस वर्षो से वह अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज निरंतर सुन रहा रहा था परंतु वह गत साठा वर्षों से अल्‍लाबख्‍श को जानता था। ऐसा कोई भी दिन नहीं बीता था जब उसका और अल्‍लाबख्‍श का सामना ना हुआ हो । या उसकी और अल्‍लाबख्‍श की बातचीत ना हुई हो या दोनो ने साथ मिलकर तंबाूक ना पी हो ।
परंतु वही अल्‍लाबख्‍श एक दिन उस गांव को छोडकर चल गया जहा वह पैदा हुआ था, जहा वह पल बडा था, जहा उसका घर था, खेत थे वह छोटी सी मस्जिद थी जो उसने अपने हाथो से बनाई थी ।
वह जाते हुए अल्‍लाबख्‍श को रोक भी नहीं पाया था । उसमें अल्‍लाबख्‍श को रोकने का साहस भी नहीं था । वह किस मुंह से अल्‍लाबख्‍श से कहता ।
‘‘अल्‍लाबख्‍श इस गांव को छोडकर मत जाओ यह गांव तुमहारा है...... तुम इस गांव में जन्मो हो । हम सब इस गांव में साथ साथ खेले, पले बडे हुए है.. इस गांव में तुमहारी संतान हुई है । इस गांव के कब्रस्तान में तुम्‍हारे मं-बाप, दादा पता नहीं कितने पूर्वज और रिश्तेदार दपकन है । तुम इस गांव को छोडकर क़्यों जा रहे हो ? इस गांव को छोडकर मत जाओ ....’’
उसे पता था यदि वह यह कहता तो अल्‍लाबख्‍श के पास एक ही उत्तर होता...
‘‘रामजी भाई.. इस गांव ने मेरा जवान बेटा छीन लिया है । इस गांव में मेरा दूसरा बेटा आधमरा आपाहिज हो गया है । इस गांव में मेरी बड़ू की ओर आपावित्र हाथ बढे । मेरी बड़ू ने उन आपावित्र हाथों को अपने शरीर का स्पर्श देने से पहले अपने प्राण त्याग दिए इस गांव में मेरी बेटियों की इज्जत तार-तार होने ही वाली थी पता नहीं किस तरह खुदा ने उसे बचा लिया । इसगांव के मेरे उन खेतों को जलकर राख कर दिया गया जो चार महीनों तक मैंने अपने खून से सींच सींच कर लहलहाए थे । इस गांव में मेरे प्यार के शिवाले मेरे घर को खण्डहर बना दिया गया । मेरी मस्जिद को खण्डहर बनाकर उसमे मूर्तियां रख दी गई अब आगे इस बात की क़्या ग्यारंटी है कि इस गांव मे इसके बाद कभी मेरे बेटों की जान लेने का प्रयत्न नहीं किया जाएगा । मेरी बेटियों की ओर वासनाभारे हाथ नहीं उठेंगे, मेरा आराध्यगॄह उध्वस्त नहीं किया जाएगा ।’’
अल्‍लाबख्‍श की इस बात का तो किसी के पास कोई उत्तर नहीं था ।
उसकी आंखो के सामने सब कुछ हुआ था । उसकी आखों के सामने मस्जिद तोडी गई थी । उसमें हनुमनजी की प्रातिमे रखी गई थी । उसके खेत और घर जलए गए थे । उसके बेटों को त्रिशुलों से छेद छेदकर मरा गया
था । उसकी बड़ू बेटियों की ओर वासनाभारे हाथ बढे थे ।
और वह चुपचाप यह तमशा देखता रहा था । किसी को रोक नहीं सका था गांव के किसी भी व्‍यक्ति ने किसी को भी रोकनेका प्रयत्न नहीं किया था ।
जिन लेगोंने यह सबुकछ किया था वे सब उसके अपने वाले थे । उसी गांव के लेग, नवयुवक थे जो इसी गांव में पल बढकर जवान हुए थे । वे अल्‍लाबख्‍श की गोद में खेले थे । उन्‍हों उसके खेतों से आम चुराकर खाए थे ।
जिसे वे अल्‍लाबख्‍श चाचा कहते थे उन्‍हीं लेगों ने उसके परिवार वालों के साथ यह सब किया था ।
वह और उसके जैसे सैंकडो लेग तमशा देखते रहे थे । और अल्‍लाबख्‍श को सांत्वना देने, अपनी मित्रता और संबंधो का विश्वास दिलने उस समय पहुंचे थे जब उसका सब कुछ लुट गया था । जिस समय दानवता का यह नॄत्य हो रहा था उस समय अल्‍लाबख्‍श गांव में नहीं था वह बाहर गया हुआ था ।
जब वह शहर से लौटा तो इतना सब कुछ हो चुक था ।
यदि अल्‍लाबख्‍श गांव में होता और उसकी आखों के सामने यह कुछ होता तो इतना सबुकछ देखने के बाद शायद वह जिंदा नहीं बचता । या तो वह उसके बडे बेटे की तरह मर दिया जाता या फिर यह सब अपनी आखों से देखने के बाद स्वयं ही मर जाता ।
उसके बाद वह आठा दिनों तक गांव में नहीं रहा वह अपने घायल परिवार को लेकर शहर चल गया ।
शहर से वापस आने के बाद तो उस का गांव में रहना और भी काफ़्नि हो गया उसे धमकियां मिलने लगी ।
‘‘गांव छोडकर चले जाओ वरना पिछली बार जो नहीं हो सका वह इस बार होगा । पिछली बार तो तुम बच गए परंतु इस बार नहीं बच पाओगे ।’’
उस गांव में जन्मो, पल, बडे, अल्‍लाबख्‍श के हजारों दोस्त, जान पहचान वाले उस गांव मे थे । हर कोई उसे जानता था, हर किसी से उसके संबध थे ।
सब अल्‍लाबख्‍श को सांत्वना देने गए
‘जो हुआ बहुत बुरा हुआ’
‘‘यदि वह बुरा हो रहा था तो आप लेगों ने उसे रोका क़्यों नहीं ?’’ अल्‍लाबख्‍श ने उनसे प्रश्न किया तो सब निरूत्तर हो गए । इसलिए जब अल्‍लाबख्‍श ने अपने परिवार के साथ गांव छोडने का निर्णय लिया तो एक दो लेगों ने ही उसे ऐसा करने से रोका । ‘‘मैं रूक जाता हूं परंतु जो धमकियां रोजाना मुझे मिल रही है उनका क़्या होगा? हम इस गांव में पहले की तरह सुरक्षित रहेंगे?’’
‘‘अल्‍लाबख्‍श वे बच्चे है और बहक गए है और कुछ इस तरह बहका दिए गए है कि उन्‍हे राह पर लना काफ़्नि है । और तुम तो जानते हो आजकल के नवजवान किसी की कुछ सुनते नहीं है...’’
इस पर अल्‍लाबख्‍श जवाब देता
‘‘तो इस का आर्थ मुझे अपने परिवार वालों के साथ यह घर छोडना पडेगा । तुम्‍हारे बच्चे नहीं चाहते है हम लेग इस गांव में रहे उस गांव में जो मेरा अपना गांव है और तुम में अपने बच्चों को रोकने की ताकत नहीं है । इस का आर्थ है तुम भी अपने बच्चों के आपराधों में बराबर के साझेदार हो... तो ठीक है अब मैं कोई और खतरा मेल लेना नहीं चाहता... मुझे और मेरे परिवार को कहीं ना कहीं तो शरण मिल जाएगा । अल्‍लाह की जमीन बहुत बडी है...।
जिस दिन अल्‍लाबख्‍श का परिवार गांव छोडकर गया उसके जैसे कुछ लेगों को दु:ख हुआ। परंतु गांव मे उत्सव मनाया गया । अल्‍लाबख्‍श के घर और मस्जिद की इंटे तोड तोडकर अपनी विजय पर नॄत्य किया गया उसके खेतों पर कब्जा करके उसके टुकडे कर दिए गए ।
वह चल गया । परंतु उसके जाने के बाद भी उससे जुडी साठा सालों की यादें नहीं जा सकी ।
वह अल्‍लाबख्‍श जिसके साथ वह बचपन से खेलता, ूकदता आया था जिसके साथ वह गांव की स्‍कूल में पढा था, जिसके साथ वह खेत के संबंध में परामर्श और चर्चा करता था और उसे उन समस्याओं के बारे में अल्‍लाबख्‍श परामर्श देता था । ईद और बकरी ईद के दिन वह जिस के घर शीर खुरम पीने जाता था । मेहर्रम में वह जिसके घर शरबत पीता था और शुद्ध शाकाहारी खिचडा खाता था दिवाली-नवरात्र को जिसे वह अपने घर बुलता था ।
नवरात्र के त्योहार में जब अल्‍लाबख्‍श काठियावाडी वस्र पहेनकर दांडिया खेलता था तो कोई उसे पहचान नहीं पाता था कि यह अल्‍लाबख्‍श है एक मुसलामन जो गांव की इकलौती मस्जिद को मोज्जन (आज़ान देने वाल) और पेशीमम (नमज पढाने वाल) है जो गांव के मुसलामन बच्चो को आरबी पढाता है और धर्म की शिश देता है ।
सवेरे जागने के बाद अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज उसे भाली लगती थी । तो रात में जब तक उसके कानों में उसकी आज़ान की आवाज नहीं पडती उसे नींद नहीं आती थी ।
एक दिन उसने उससे पूछा
‘भाई अल्‍लाबख्‍श तुम इस आज़ान में क़्या पुकारते हो ...’
‘अल्‍लाह की तारीपक और लेगो को अल्‍लाहकी इबादत के लिए आने का बुलवा’
एक दिन उसका लडका शहर से टेप ले आया । वह टेप में सबकी आवाजें रेकार्ड करता था ।
एक दिन जब अल्‍लाबख्‍श उसके घर आया तो वह उससे बोल।
‘अल्‍लाबख्‍श तुम आज़ान पुकारो मैं तुमहारी आज़ान को टेप करना
चाहता हूं’
‘‘नहीं रामजी भाई आज़ान किसी भी समय नहीं दी जाती है। उसका समय निश्चित । उन निश्चित समय पर ही आज़ान की जाती है ।’’
परंतु अल्‍लाबख्‍श से बहुत आधिक जिद करने लगा कि वह उसकी आज़ान टेप करना चाहता है तो उसने आज़ान दी और उसने अल्‍लाबख्‍श की दी आज़ान टेप कर ली ।
‘रामजी भाई मैंने आज तुम्‍हारे घर में आज़ान दी है । इस आज़ान की शाएिक़्त से तुम्‍हारे घर में जो भी भूत, प्रेत, बलएं होगी सब भाग जाएंगी ।’
कुछ दिनों बाद सचमुच उसे अनुभव हुआ उसके घर में कई पारिवर्तन हुए है । उसका घर जिन भूत, प्रेतात्म, बाधाओं से घिरा था उसकी आज़ान से वे दूर हो गई ।
गत साठा सालों में कई बार पूरा देश सांप्रदायिक दंगो की आग से झुलसा परंतु उनकी गरम हवा कभी भी उनके छोटे से गांव को नहीं छू सकी ।
परंतु गत चार पांच वर्षो से वह बडी तीव्रता से अनुभव कर रहा था कि उसकी संतान के विचारों में बडे #कान्तिकारी पारिवर्तन आ रहे है ।
उसकी पीढाी के लेग कभी भी अल्‍लाबख्‍श या उसके धर्म के बारे में बातें नहीं करते थे । परंतु यह नई पीढाी सिर्फ अल्‍लाबख्‍श और उसके समधर्मी भार्ईयों के बारे में उसके धर्म के बारे में बाते करती रहती है । और उनकी बातों में घॄणा का विष भारा होता है ।
गांव का हर छोटा बडा अल्‍लाबख्‍श का सममन करता था परंतु यह पीढाी आवसर मिलने पर बात बात पर अल्‍लाबख्‍श की हदतक विडमबन करने का प्रयत्न करती है । उससे और उसके परिवार वालों से उलझते रहते है ।
कभी कभी वह बडे दु:ख से कहता था..
‘रामजी भाई कुछ समझ में नहीं आ रहा है । गत पचास, साठा सालों में इस गांव में जो मेरे या मेरे परिवार वालों के साथ नहीं हुआ अब हो रहा है ।’
‘छोटी छोटी बातों पर अपना मन छोटा क़्यों करते हो भाई हम है ना यह सब तो चलता रहता है’ वह उसे समझाता और उस दिन वह सब कुछ हो गया, आचानक हो गया, या पहले से तयशुदा था इस बारे में वह कुछ भी नहीं जानता था ।
और अल्‍लाबख्‍श को गांव छोडकर जाना पडा । अब गांव में केवल उसकी यादें और उसके घर के खंडहर की निशानियां शेष है। उसका टूटा हुआ घर, जली हुई मस्जिद जिसमे हनुमन जी की मूर्तिया रखी हुई है । खेत जिस पर पता नहीं कितने लेगो का कब्जा है ।
जिन्ड़ोंने उसके साथ यह सब कुछ किया वे शायद उसे भूल गए हो परंतु वह उसे किस तरह भूल सकता है ।
उसे बार बार अनुभव होता था जैसे अल्‍लाबख्‍श उसकी नस नस में बसा हुआ है । उसे उसकी एक एक बात याद आती है । उसके साथ गुजारा एक एक शण याद आता है । उसे हर जगह उसकी कमी अनुभव होती है ।
पता नहीं उन लेगों को भी अल्‍लाबख्‍श की कमी अनुभव होती भी है या नही । जिन्ड़ोंने उसे गांव छोडने पर विवश किया था ।
उसे गांव छोडने के लिए विवश करके पता नहीं उनकी किस भावना की तुळाी हुई है ।
वह रोजाना जब जागता है तो उसके कान अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज सुनने के लिए व्याकुल रहते है । उसे पता था उन्‍हे उसकी आज़ान की आवाज सुनाई नहीं देगी । क़्योंकि अब अल्‍लाबख्‍श या कोई मियां बश अब इस गांव में नही रहता है फिर भी उसके कान आज़ान की आवाज सुनना चाहते है ।
उसे उसकी आज़ान की आवाज सुनकर एक मनासिक शान्ति मिलती थी ।
परंतु अब जब वह आवाज सुनाई नहीं देती है तो उसे दिनभर एक बेचैनी सी अनुभव होती है ।
जब उसकी व्याकुलता हद से बढ जाती है तो वह टेप रेकार्ड के पास जाता है और उसमें वह कॅसेट लगता है जिसमें उसने अल्‍लाबख्‍श की आज़ान की आवाज टेप की थी । और पूरे वालयूम में जब वह अल्‍लाबख्‍श की आज़ान सुनता है तो उसके मन को बडी शान्ति मिलती है ।
हैया ललपकलह.... हैया ललपकलह....
भालई की और दौडो... भालई की और दौड.... द द
अप्रकाशित
मौलिक
------------------------समाप्‍त--------------------------------पता
एम मुबीन
303 क्‍लासिक प्‍लाजा़, तीन बत्‍ती
भिवंडी 421 302
जि ठाणे महा
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