कहानी धरती लेखक एम. मुबीन
नींद दलबीर की आखों से कोसों दूर थी ।
सोने का समय नहीं था । जिस क्षेत्र मे वह तैनात था उस क्षेत्र से घुसपैटियों और पाकिस्तानी सिपाहियों का सफाया हो चुका था । उनकी बटालियन ने बडी शान से उस चोटी पर तिरंगा लहराया था जिस पर अब तक घुसपैठी, पाकिस्तानी आतंकवादियों का कब्जा था ।
कई दिनों के निरंतर युद्ध से सारे सैनिक थके हुए थे । इसलिए यह तय किया गया था कि कुछ सैनिक पहरा देंगे, शेष आराम करके अपनी इतने दिनों की थकन उतारेंगे ।
इसी आदेश के आनुसार वह अपने खेमे में आकर लेटा था । परंतु फिर भी उसे नींद नहीं आ रही था । नींद न आने के दो कारण थे ।
शायद उनकी इसी मीठी नींद के कारण कब घुसपैठी भरतमता की धरती में घुस आए उन्हे पता ही नहीं चल सका और उन्हे खदेडने के लिए यह युद्ध छेडना पडा था ।
और दूसरा कारण था सईदखान की लश ।
शाम को वह एक बार फिर अपनी आखों से सईदकी लश देशकर आया था ।
एक बार फिर वह लश सीम से वापस आई थी । पाकिस्तानियों ने उसे अपना सैनिक मनने से इन्कार कर दिया था और उसकी लश भी स्वाीकार नहीं की थी । सईद की लश बर्फ में दबाकर रखी गई थी उसे हर प्रकार से सुरक्षित रखने की कोशिश की जा रही थी वरना आठा दिनों तक किसी लश का सुरक्षित रहना आसंभाव था ।
अब तक तो वह सड गल जाती ।
परंतु काफिन में रखी लश की देखभाल किसी बीमर की तरह की जा रही थी ।
रोजाना उसकी जांच की जाती उसको सुरक्षित रखनेवाले द्रव्य बदले जाते ।
लश की देखभाल करने वाले हर रोज इस आस पर रहते, कि शायद पाकिस्तान की ओर से सईद को अपना सैनिक स्वाीकार करके उसकी लश मंग ली जाए और वह लश उस के गांव जो क़्वेटा के पास था भेज दी जाएं जहा उसका आन्तिम संस्कार हो ।
परंतु ऐसा कुछ नहीं होता था ।
दलबीर स्वयं दिन में कई कई बार जाकर सईद की लश देखता था और कभी कभी तो उसकी लश के पास जाकर घंटो बैठा रहता था ।
आखिर इस युद्ध में सईद उसी के हाथों मरा गया था । सईद उस का दोस्त था । उसने अपने हाथों से अपने दोस्त को मरा था । उसे इस बात का कोई दु:ख नहीं था ।
क़्योंकि उसने अपनी धरती, अपने देश की रश के लिए ऐसा किया था। दोनों दोस्त थे परंतु दो दुश्मन राय्र्ट्रों के सिपाही थे । उन्हे एक दूसरे से लहना था । उसे आवसर मिल गया उसने सईद को गोली मर दी और वह मर गया ।
गोली चलते समय उसके मन में यह भावना नहीं थी कि सईद उसका दोस्त है और वह अपने दोस्त की जान ले रहा है ।
उसे तो अपना कर्त्तव्य पूरा करना था । अपने देश अपनी मतॄभूमि की रश करना था । जो नापाक कदम उसकी मतॄभूमि पर पडे थे उन्हे खदेडना था और उसने सईद को गोली मर दी ।
यदि वह सईद को गोली नहीं मरता तो सईद उसे गोली मर देता उस पर गोली चलते सईद बिलकुल नहीं झिझकता जिस तरह वह नहीं झिझका था।
क़्यों की सईद की नजर में उस समय वह उसका मित्र नहीं दुश्मन का सैनिक था जो उसके ध्येय के बीच दीवार बना हुआ था और शायद सईद को यही आदेश था कि ध्येय के बीच दीवार बनने वाली हर हस्ती को मिटा दो और वह इस आज्ञा का पालन कर रहा था ।
उसे केवल आज्ञा का पालन करना था । वह आज्ञा गलत है या सही उसे इससे कुछ लेना देना नहीं था । गलत या सही तय करने वाले राजनेता होता है । राजनेताओंने यदि कोई गलत आदेश भी दिया तो वह सही होता है वह चाहकर भी उसका विरोध नहीं कर सकते और यदि इस गलत आज्ञा का पालन करने में उनकी जान भी जाए तो दुनिया की नजर में चाहे वह गलत हो परंतु वे राजनेता तो उसे शहादत का दर्जा करार देकर उसका ढिंढोरा पीटते है शायद उनकी जान की कीमत यही है ।
वे राजनेता इस गलत ध्येय के पीछे अब तक लखों लेगों को मरवा चुके है परंतु उन पिशाचों की प्यास अब भी नहीं बुझ पाई है ।
शिखर पर कब्जा करने के बाद मरनेवालों की लशे जम की गई । शेष तो घुसपैठी, आतंकवादी थे, परंतु चार पांच पाकिस्तानी सैनिक थे । उनके पास से इस बात के प्रमण बरामद हुए थे और सईद खान को तो वह पहचान ही गया था । इस युद्ध में मरने वाले लगों में पांच पाकिस्तानी सैनिक है यह खबर उपर भेज दी गई ।
राजनैतिक स्तर पर इस समचार का प्रचार किया गया ‘‘मरने वाले पांच पाकिस्तानी सैनिकों की लशे इस बात का प्रमण है कि घुसपैटियों की आड में स्वयं पाकिस्तानी सेना इस क्षेत्र में सा#िकय है । यह एक खुले युद्ध की
धमकी है ।’’
इस राजनैतिक बयान के बाद उपर से आदेश आया कि पाकिस्तानी सैनिकों की लशें पाक सेना के हवाले कर दी जाए ।
आदेश आनुसार सीम पर पाक सेना को उनके सैनिकों की लशें देने ले गई ।
लशें ले जाने वालों में दलबीर भी शामिल था । लशों को देखकर उनके गिर्द एक भीड लग गई ।
अरे ‘‘इकबाल’’
‘‘सईद खान’’
‘‘नाजिम’’
‘‘हसरत आली’’
‘‘जमील’’
सैनिकों के मुंह से आवाजें निकली ।
परंतु उन लशो के बारें मे शायद उपर से आदेश आ गया था । आदेश आनुसार कहा गया
‘‘यह हमरे सैनिकों की लशें नहीं है ।’’
इस बात पर पाक सैनिकों ने अपने आधिकारियों को घेर लिया था ।
‘‘सर, यह आप क़्या कर रहें है । बरसों से हमरे साथ है और आप कह रहे है यह हमरे सैनिकों की लशे नही है । आप अपने सैनिकों की लशें लेने से इन्कार कर रहे है ।’’
‘‘मुझे उपर से जो आदेश मिल है मैं उस आदेश का पालन कर रहा हूं ’’ आधिकारी ने उत्तर दिया ।
‘‘यह कैसा आदेश है, देश के लिए शहीद होने वाले शहीदों की लशे ना ली जाएं । उन शहीदों की लशें यह कहकर दुश्मन के हवाले कर दी जाए कि मरने वाले हमरे सैनिक नहीं है । जनाब, मरने वाले सैनिकों का सममन होता है । उनकी लशें इस तरह दुश्मनों को लौटा कर उन लशों की बे हुरमती (अपमान) नहीं किया जाता ।’’
‘‘सैनिक का काम है बालिदान देना और वे सैनिक बालिदान दे चुके है। अब यह उनके बालिदान का एक और प्रकार है कि उनकी लशें वापस नहीं ली जाए उनकी लशें वापस लेने का मतलब होगा इस बातका पक़्का प्रमण देना कि पाकिस्तानी सेना घुसपैठा में शामिल है और इस प्रमण के बाद सारी दुनिया में पाकिस्तान की थूं थूं होगी इसलिए भालई इसी में है कि हम अपने सैनिकों का लशें ना लों । उन्हे वापस कर दे ं ।’’
‘लेकिन सरजी हमें ऐसा काम करने के लिए बाध्य क़्यों किया जा रहा है जिसका पता चल जाने के बाद सारी दुनियां में हमरी थूं थूं हो ।’
‘यह सोचना हमरा तुमहारा काम नहीं है । राजनेताओं का काम है । हमरा काम उनकी आज्ञाओं का पालन करना है ?’
और सीम से वे पांच लशें दोबारा वापस एौंकप लई गई । उनमें सईदखान की लश भी थी ।
सईद खान उसकी गोली का शिकार होकर मरा था । उसे उस बात का दुख नहीं था दुख इस बात का था मरने के कई दिनों बाद भी उसकी लश बे कपकन है । उसके देशवासी, जिस देश की सेना के लिए उसने अपनी जान निछावर कर दी वे लेग भी उसे अपनाने के लिए तैयार नहीं है ।
जिस मिटटी से उसने जन्म लिया है क़्या उस मिटटी में वह दपकन हो पाएगा ? या उस किसी दूसरी मिटटी में जगह मिलेगी ?
उसे बार बार याद आ रहा था । एक बार उसने सईद खान से कहा था
‘‘सईद खान, जिस धरती की ओर तुम अपनी आपावित्र नजरों से देखते हो, जिसकी पावित्रता तुम अपने आपावित्र कदमें और इरादों से आपावित्र करने का इरादा रखते हो उस धरती का सीना इतना विशाल है कि समय आनेपर एक दिन यही धरती तुम्हें अपनी बाहें पैकलकर अपना लेगी और तुम्हें अपनी गोद में जगह दैगी ।’’
आज जब वह सोचता है तो उसे विश्वास ही नहीं होता है कि इतनी जलदी उसकी बात सही सिद्ध हो जाएगी ।
क़्योंकि सईदखान और दूसरी लशों के बारे में पैकसल हो चुका है ।
‘‘हम आखिर कब तक उन लशों को संभालते रहेंगे उपर से आदेश आने के बाद किसी स्वयं सेवी संस्था के हवाले कर देंगे वह उनका आन्तिम संस्कार कर देगी ।’’
‘आंतिम संस्कार’ सोचकर उसके होठोंं पर कडवी मुस्कान पैकल जाती थी । उसे कब्र में दपकन कर दिया जाएगा भरत मता की गोद में वह सिर रखकर हमेशा के लिए सो जाएगा । उस भरत मता की गोद में जिस.... । जहा वह पैदा हुआ वहां की उसे ना तो तीन मुठ्ठाी मिटटी मिल पाएगी और ना दो गज जमीन ।
उसके मित्र, साथी, रिश्तेदार कोई भी उसकी मौय्यत को कांधा नहीं दे पाएंगे वह परायों के कांधो पर सवार होकर अपनी आन्तिम यात्रा के लिए जाएगा। क़्या एक देश पर जान निछावर करनेवाले का ऐसा ही आंत होता है ?
नहीं देश पर जान निछावर करने वालों के लिए तो फूलों के ढेर लग जाते है । वे मिटटी में दपकन नहीं होते । इतिहास बनकर इतिहास के पन्नों पर पैकल जाते है । परंतु वे जो मतॄभूमि की रश करते है । किसी की मतॄभूमि हडपने के लिए जो सईदखान की तह आगे कदम बढाते है शायद उनका आंत सईद खान सा ही होता है....
सईद खान का कहना था
‘‘दलबीर कश्मीर हमरा है, हम लेकर रहेंगे । बचपन से हमरे जेहन मं यह बात डाली गई है । तुमने बांग्लादेश के नाम पर हमरा एक बाजू तोडा है हम कश्मीर के नाम पर तुमहारा आधा सिर काट देंगे ।’’
‘‘सईद, दलबीर जैसे लखों लेगों के सिर कट जाएंगे मगर भरतमता के सिर का बाल भी बांका नहीं होगा ।’’
उसका उत्तर होता था ।
दोनों जब भी मिलते थे इस विषय पर दोनों में झडपे होती थी । परंतु गरम गरम चर्चा और झडपों के बाद भी जब वे एख दूसरे से बिदा होते थे तो हंसते हंसते बिदा होते थे ।
वे दोनों कब एक दूसरे के दोस्त बन गए थे उन्हे पता ही नहीं चल था।
इससे पहले वह पूंछ सेक़्टर में था ।
पूरे क्षेत्र में दोनो देशों की सेनाएं आमने सामने थी । रोजाना एक दूसरे पर गोलबारी होती, झडपे होती, और युद्ध सा समं बंध जाता था ।
दोनों देश की सेनाओं के लिए सीम से आधिक युद्ध स्थल वह छोटा सा झरना था जहा पर से दोनों सेनाएं पीने की पानी लेती थी और और उसी में दोनों देशों के सैनिक स्नान इत्यादी भी करते थे ।
झरना नो मेन लॉण्ड मे था दोनो देश उसपर अपना कोई दावा नहीं कर सकते थे ।
यह तय किया गया था कि झरने की पाकिस्तानी सीम से पाकिस्तानी सैनिक पानी लोंगे, भरतीय सीमे से भरतीय सैनिक पानी भरने या स्नान के लिए दोनों सैनिक साथ साथ जाते । आमना सामना होता और जरा जरा सी बात पर झडपें हो जाती । गोलियां और तोपें चलने लगती ।
थककर दोनों ओर के आधिकारियों ने तय किया कि दोनो सेनाएं एक एक दिन झरने से पानी भारेंगी । जब एक सेना की पारी तो हो दूसरी सेना का कोई भी सिपाही वहां नहीं पकटकेगा ।
उस निर्णय के बाद झरने पर रोज रोज होने वाली मरपीट बंद हो गई थी ।
दोनों सेनाएं उस नियम का पालन कर रही थी । एक दिन दलबीर अपने साथियों के साथ झरने पर स्नानकर रहा था कि आचानक उसका एक साथी चींखा -
‘‘ओए पाकिस्तानी सिपाही, जान की खैरियत चाहता है तो यहां से चल जा । आज तुमहारी बारी नहीं हमरी बारी है ।’’
वह हाथ उपर उठाए उनके समीप आया
‘‘मुझे आज गुस्ला (स्नान) की हाजत (आवश्यकता) है । गुस्ला नहीं एिकाय तो नमज नहीं पड सकता । हमरी पारी कल है कल तक गुस्ला नही किया तो मेरी पांच वक़्तों की नमज़े कज़ा (छूट) जाएगी । इसलिए मुझे आज यहां नहाने दों ।’’
उसकी बात सुनकर सबने कुछ सोचा फिर उसने उत्तर दिया
‘‘ठीक है नहा ले ।’’
उसने स्नान कर लिया फिर जाते हुए बोल
‘‘सईद खान तुम लोंगो का यह एहसान जिंदगी भर नहीं भूलेगा ।’’
वह सईद खान से उसकी पहली मुलकात थी ।
फिर मुलकातें होती रही ।
आक़्सर चांदनी रातों में दोनों अपनी अपनी सेनाके एौंकपो से निकलकर दूर किसी टीले पर जा बैफ़्ते और घंटो आपसमें बातें करते थे, अपने अपने परिवार वालों के बारे में ।
उसे मलूम था उसकी पत्नी का नाम सूबी है, उसके दो बच्चे है, गरीब मं-बाप है । एक जवान बहन है ।
सईद खान को भी उसके परिवार के बारे में सब कुछ मलूम था ।
दोनों जब मिलते तो पहले एक दूसरे के घरवालों के बारे में ही पूछते।
घरसे पत्र आया है तो उसमें क़्या लिखा है ।
कभी कभी, भरत पाक संबंध, आतंकवाद, कश्मीर के बारे में उनमें गरम गरमी भी हो जाती थी ।
परंतु फिर सामन्य हो जाते थे ।
दलबीर के साथी उसे टोकते भी थे ।
‘‘ओए दलबीरे ...... तुझे क़्या भरतीय सेना में कोई दोस्त नहीं मिल जो एक पाकिस्तानी सैनिक से दोस्ती की है...’’
‘‘ओए दोस्ती की नहीं जाती, हो जाती है । पता नहीं इस दोस्ती में वाहेगुरू की क़्या मर्जाी है ....’’
फिर एक दिन सईद ने बताया
‘‘मेरी एक दूसरी जगह पोस्टाींग हो गई है । कहा मुझे भी नहीं
मलूम । जिंदगी रही तो फिर मुलकात होगी ।’’ सईद चल गया । परंतु वह उसे भूल नहीं सका । महीनों फिर उसकी खबर नहीं मिल सकी और खबर मिलने का कोई स्रोत भी नहीं था ।
महीनों बीत गए ।
फिर कारागिल में लहाई छिह गई और उनकी बटालियन को कारागिल जाने का आदेश मिल ।
उंची उंची काफ़्नि पहाडी ठिकानों पर आतंकवादी, घुसपैठी और पाकिस्तानी सैनिकों ने अपने ठिकाने बना रखे थे । भरतीय सेना एक एक करके उन ठिकानो को वापस कब्जे में लेकर उनको वहां से खदेडने में लगी थी ।
वह आन्तिम शिखर थी जब उसका सईद खान से सामना हुआ ।
उसको उसने दूर से ही पहचान लिया था । परंतु उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह सईद खान ही है ।
भरतीय सेना आगे बढ रही थी और चोटी पर डेरा जमए घुसपैटियों के लिए पकरार के रास्ते बंद करती जा रही थी ।
घुसपैटियों को जब लगने लगा कि अब उनका बचना मुश्किल है तो वे भागने लगे ।
परंतु कुछ मुकाबले पर डटे रहे ।
उनमें सईद खान भी था ।
और आखिर सईद खान उसकी गोलीका शिकार हो गया ।
उसने उसकी लश कई बार उलट-पलट करके देखी थी उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह सईद खान ही है ।
परंतु वह सईद खान ही था ।
और अब कई दिनों से उसकी लश बे कपकन व कब्र पडी थी । उसकी सेना उसे अपना सैनिक मनने से इंकार कर रही थी ।
पता नहीं उसके घरवालों को उसकी मौत की सूचना दी गई भी है या नहीं । या उसके मरने का जीवन भर उसके घर वालों को पता नहीं चल सकेगा। उसके घर वालों को यही आश्वासन दिया जाता रहेगा कि सईद खान ठीक है । उसे छुटटी देना संभाव नहीं है और वे जीवन भर उसके वापस आने की राह तकते रहेंगे ।
कल शायद सईद खान भरत की धरती पर इस धरतीमं की गोद में मीठी नींद सो जाएगा । उसे आन्त वही पनाह मिली । जिस धरतीमं को आपावित्र करने के लिए उसके देश के राजनेताओं ने उसे भेजा था ।
काश वे धरती की महानता को समझते तो ऐसा नापाक कदम ना उफ़्ते ।........... द द
अप्रकाशित
मौलिक
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303 क्लासिक प्लाजा़, तीन बत्ती
भिवंडी 421 302
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